एक ऐसी कहानी जो आर.के बैनर के बगैर शायद कभी सिनेमा घरों का मूंह भी नही देख पाती। बूट पालिश देख कर लगता है की जैसे इसमे काम करने वाले बाल कलाकारों ने अभिनय नही बल्कि अपनी असल जिंदगी के ताना-बाना इसमे पिरो दिया हो! भोला और बेलु नाम के किरदार अभिनय जगत में अजर-अमर हो गए। इस पटकथा को अपने अभिनय से सराबोर कर चुके भोला और बेलु आज न जाने कहाँ हैं, काश कि उस जमाने में भी ऑस्कर पुरुस्कारों में नामांकित हो पाती और पश्चिम जगत का मीडिया भी आज कि भाँती ही इन दोनों बाल कलाकारों को हाथों-हाथ लेता और इनके नाम भी, स्लम डॉग मिल्लिओनैरे में काम कर चुके अजहर और महमूद कि भाँती ही लोगों कि जुबान पे छाए रहते! मगर ऐसा न हो सका, कारण भले ही कुछ भी हो, लेकिन आज अभिनय जगत में मौजूद भीष्म-पितामहों को अगर इन किरदारों के नाम भी शायद याद हों तो चमत्कार से कम न होगा!
जहाँ इक तरफ़, 'तू बढता चल, तेरी है जमीन, तेरा यह गगन तू बढ़ता चल' सरीखा गीत आज भी राह दिखाता सा महसूस होता है, वहीँ दूसरी ओर, 'नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है' बाल सुलभ और मोहक प्रतीत होता है! पुरानी फिल्मों के चाहने वालों के लिए एक यादगार तोहफा साबित होगी यह फ़िल्म!
दुःख-दर्द से भरी यह फ़िल्म एक नए सवेरे की ओर इशारा करती है, भोला मासूम सही लेकिन प्रण का पक्का है, तो बेलु के भीतर एक मासूम बालिका नजर आती है, जो अठखेलियाँ भी करती है और भोला से बिछड़ने के बाद उसकी धून में रोती नजर आती है। कुल मिलाकर एक ऐसी फ़िल्म जो एक निष्ठुर ह्रदय में भी हलचल पैदा कर सकती है।
तेरी है जमीन, तेरा यह गगन,
तू बढ़ता चल....
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