तारीख - ३१ दिसम्बर २००९, ख़त्म होता साल और रंगीन होने वाली शाम का इन्तजार किसे नहीं था.... मैं भी अपने एक दोस्त के साथ सेंट्रल पार्क, कनाट प्लेस पहुँच चूका था, और एक लस्सी गटक दिल्ली कि सर्दी में यहीं कि धुप का आनंद ले रहा था| शाम होने में और दुनिया को नशे में रंग जाने में कुछ वक़्त था
और मेरी निगाह एक ऐसी दुनिया पर पड़ी जिसको देखने के लिए आपको केवल फुर्सत के कुछ क्षण चाहिए होते हैं, वह जमाना गया जब किसी पारलौकिक दुनिया का आभाष मात्र करने को आपको अपनी छोटी सी जिंदगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा ध्यान और गहन चिंतन करने में गुजारना पड़ता था, यह दुनिया ठीक मेरी नजरों के सामने थी, कौन सी दुनिया? जनाब नशे कि दुनिया, नशे का जहाँ!
उपलब्ध कैमरा काम आया और मैं यह तस्वीरें खींचने में सफल हो गया, मगर कुछ भद्दी और अनसुनी गालियाँ हजम करने के बाद! यह कौन सी दुनिया है जो ठीक सबके सामने है मगर किसी के पास फुर्सत भी नहीं, इसकी ओर देखने कि..... ऐसा क्यूँ होता है? मुझे भी नहीं दिखता था कभी, लेकिन आज, आज मेरी नजरें सीधी-सीधी इसी दुनिया से बावस्ता थी....
इस दुनिया का पता सेंट्रल पार्क, इसके होने कि वजह मालुम नहीं, पता होती तो शायद भारत को तीसरी दुनिया कि गिनती से बाहर निकाल पाता, बहरहाल मैं इस दुनिया के बेहद करीब होने और इसके तौर-तरीकों से हल्का सा परिचित होने का अनुभव हासिल कर खुद को बुद्ध घोषित करना नहीं चाहता, मैं तो केवल इशारा कर सकता हूँ, और सही ही तो कहता है कलबिया ----
दौरे-जहाँ में मेरा भी आशियाँ होगा,
कहीं पे कदम तो कहीं पे निशाँ होगा,
गैर नहीं जो मुझसे नहीं इस जहाँ में,
इस जगह से दूर नहीं, यहीं किसी कोने में,
मेरा भी जहाँ होगा...
कहीं पे कदम तो कहीं पे निशाँ होगा,
गैर नहीं जो मुझसे नहीं इस जहाँ में,
इस जगह से दूर नहीं, यहीं किसी कोने में,
मेरा भी जहाँ होगा...
कमज़र्फ दुनिया में
ReplyDeleteढूंढ ही लेते हैं
अपने मतलब की जगह
नशे से सराबोर
ये उन लोगों की जगह है
जहां से सरकारी आगम
पर कोई लिखने वाला नहीं
कोइ रोजनामचा नहीं
नशे की इस दुनिया का
बस झूमते जाना है
बस झूमते जाना है
चिलम चटपटी, झख मराए लखपति। भैया इनका काम ही नशे से चलता है नहीं तो इनकी जान चली जाएगी। बिना रोटी के जी लेंगे, बिन नशे के नहीं।
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