एक रहिन हीर, एक रहिन तीर और एक रहिन हम! अब उ कहावत है ना के अकेला चना क्या भाड़ झौंकेगा..... बस झोंक ही दिए भाड़ और लियो पिलाई पे पिलाई! किस से शिकायत और कौनो मुंह से शिकायत... खुद ही तो कहे थे की संभाल लेंगे हम| प्रस्तावना तो ठीक से हो गयी अब जरा माजरे को भी सुलझा-बुझा लें! नहीं बाद में कहोगे की खेंच बहुत मारते हो, मातारी...
मन था अकेला, खेल ऐसा खेला, चल पड़ा रेला, पकड़ा गया अकेला.... आगे आप खुद ही समझदार हैं... ही ही ही...
उन्हें जाना था मुझे निचोड़ के और वो चल दिए, सवारी भी ऐसे दिन उठाई की मन चाहते हुए भी एक बारी और की गुजारिश न कर सका| नया साल था न भैया.... अब कुछ नेमत तो देना ही पड़ता न... तो दे दिए आजादी... उधर पंछी फुर्र और इधर बन्दुक टांय-टांय फिस्स! अब किसपे निशाना साधें समझ नहीं आता था... बस दिमाग की बिमारी शुरू हो गयी... और हो गए हम अकेले... पंछी तो पहले ही किसी और डाल को खुरचने लगा था! अब हम और हमारी दुनिया पहले की ही भांति मगर पहले से थोड़ी जुदा सी हो गयी... अपने कमरे में सिमट के रह गए और यहीं से मन कुड़ना शुरू हुआ और इस हद कूड गया की बन्दुक उठाने का मन ही न रहा, शिकार की तो बात ही दूर रही| खैर दुनिया के भी रंग निराले हैं, काम को माशूका मान चुके हम काम से ही जी चुराने लगे, और सब जगह के मारे और कमरे में हारे वाली कहावत को चरितार्थ कर चुकने की कगार पे आ पहुंचे, हेंच एक झोंका और हम गुमनामी की खाई में... मगर किस्मत के पहलवान हैं हम, मंगल बहुत भारी है... लेकिन क्या-क्या देखा और क्या-क्या सुना इस बीच की दिमाग कलुषित हो चूका था... अब एक नयी बहार का इन्तजार था और वो आने का नाम ही नहीं ले रही थी| एक नयी झोंक भी सवार हो चली थी, अबकी बार और बेहतर!
और लो वो क्षण आ ही गया की हम इस बिमारी से बाहर निकल आये... मातारी... कहती थी की हम पागल हैं, अगर आज सफलता के इस मुकाम पे देख लेती तो शायद अंधी हो जाती... लेकिन हम हैं दिल से जरा कमजोर, उसके सामने ही न पड़ेंगे और यदि वो सामने आ गयी तो हमको पता चल ही जाएगा... भाई सड़क तो पार करनी ही पड़ेगी न सूरदासी को....
मन था अकेला, खेल ऐसा खेला, चल पड़ा रेला, पकड़ा गया अकेला.... आगे आप खुद ही समझदार हैं... ही ही ही...
उन्हें जाना था मुझे निचोड़ के और वो चल दिए, सवारी भी ऐसे दिन उठाई की मन चाहते हुए भी एक बारी और की गुजारिश न कर सका| नया साल था न भैया.... अब कुछ नेमत तो देना ही पड़ता न... तो दे दिए आजादी... उधर पंछी फुर्र और इधर बन्दुक टांय-टांय फिस्स! अब किसपे निशाना साधें समझ नहीं आता था... बस दिमाग की बिमारी शुरू हो गयी... और हो गए हम अकेले... पंछी तो पहले ही किसी और डाल को खुरचने लगा था! अब हम और हमारी दुनिया पहले की ही भांति मगर पहले से थोड़ी जुदा सी हो गयी... अपने कमरे में सिमट के रह गए और यहीं से मन कुड़ना शुरू हुआ और इस हद कूड गया की बन्दुक उठाने का मन ही न रहा, शिकार की तो बात ही दूर रही| खैर दुनिया के भी रंग निराले हैं, काम को माशूका मान चुके हम काम से ही जी चुराने लगे, और सब जगह के मारे और कमरे में हारे वाली कहावत को चरितार्थ कर चुकने की कगार पे आ पहुंचे, हेंच एक झोंका और हम गुमनामी की खाई में... मगर किस्मत के पहलवान हैं हम, मंगल बहुत भारी है... लेकिन क्या-क्या देखा और क्या-क्या सुना इस बीच की दिमाग कलुषित हो चूका था... अब एक नयी बहार का इन्तजार था और वो आने का नाम ही नहीं ले रही थी| एक नयी झोंक भी सवार हो चली थी, अबकी बार और बेहतर!
और लो वो क्षण आ ही गया की हम इस बिमारी से बाहर निकल आये... मातारी... कहती थी की हम पागल हैं, अगर आज सफलता के इस मुकाम पे देख लेती तो शायद अंधी हो जाती... लेकिन हम हैं दिल से जरा कमजोर, उसके सामने ही न पड़ेंगे और यदि वो सामने आ गयी तो हमको पता चल ही जाएगा... भाई सड़क तो पार करनी ही पड़ेगी न सूरदासी को....
काफी दिनों बाद झाम मचाई गुरु....छोटा लेकिन बढ़िया
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