फुर्सत और मैं कभी-कभी साथ मिलने वाला, भौतिक और अभौतिक का अनुपम मेल होता है| बहुत रोज हुए किसी से सुना था, कि सही राह चलोगे तो सही मुकाम पे देर से ही सही मगर पहुंचोगे जरुर| बस एक बात कचोटती है, कि सही राह असल में है कौन सी? यह जिस पर मैं चल रहा हूँ या वो जिसपे तुम? अब राह तो राह है, और राह है तो उसकी मंजिल भी जरुर होगी, अब सवाल यह है कि मेरी और तुम्हारी मंजिल के बीच फासला कितना होगा? ऐसे ही कुछ सवाल हैं, जो अक्सर मेरे और तुम्हारे बीच आ जाते हैं?
जी हाँ, अब आज मौका मिला कुछ कहने का तो मौकापरस्त होने का खिताब मैं यूँ ही नही गवाना चाहता! तुम और तुम्हारी सोच मुझसे मेल नहीं खाती| अगर ऐसा न होता तो किसी एक ही मुद्दे पे तुम्हारी और मेरी सोच में इतना अन्तर न होता| अब अन्तर है तो है, कभी ख़त्म भी न होगा शायद! लोग तुमको 'समय' के नाम से जानते हैं और मैं 'पुरातनवादी सोच' का बिम्ब मात्र हूँ! मैं अकेला कहाँ तक समय से आगे जा सकता हूँ? लेकिन एक बात है सोच की कोई समय-सीमा नहीं होती, परन्तु एक बार चला गया वक्त कभी लौट के नही आता!
अब इतने झमेले हैं, और तुम सोचते हो की साथ चलेंगे, मैं इन्तजार करूँगा, जीवन की इस राह में किसी पल तुम और मैं एक साथ हों और बस कुछ न हो मेरे और तुम्हारे बीच! इक उम्मीद में लिख रहा हूँ, कभी तो वो पल आए, जब केवल चंद मिनट और मैं अर्ध्य में हों|
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