का हो, कौन महिना चल रहा है? दादी के इस प्रश्न का उत्तर देने में थोडा सकुचाते हुए, रम्या बोली - सातवाँ| और रमुआ का गई, कित्तना महिना हो गईल? अबकी इस प्रश्न का उत्तर देने में रम्या के चेहरे का रंग उतर चुका था| और अब वो किसी और प्रश्न को सुनने की स्थिति-परिस्थति में ही नहीं थी|
रमुआ उपनाम है रमेश मेहतर का जो आज से आठ महिना पहले ही रात की काली स्याही में कहीं खो चुका है| लोग कहते हैं, सात महिना पहिले गाँव-मालिक और परिवार जनों की नजर बचा कर वो रम्या से मिलके गया है और उसी मिलन की निशानी, उसकी कोख में कभी मिलने और कभी न मिलने वाली सूखी-रोटी के पोषण में पल-बढ रही है| सच क्या है, रम्या भी शायद ही जानती है! सात माह पहले रोटी भूंजने को लकड़ी की तलाश में जंगल गई रम्या को बेहोशी की हालत में गाँव-मालिक के लठैत उसकी कोठरी में पटक गए थे| अब सच जो भी हो, रम्या का ध्यान रखना रमेश के बुढे माँ-बाप का फ़र्ज़ बन चुका था| लाठी टेकती अम्मा और फालिज़ पढने से वाम-अंग से अपंग हो चुके काठी मेहतर ही इस घर की मरजाद बचाए, मेहतरों के इस बस्ती में अपने आँगन में आने वाली एक नई पौध का इन्तेजार राम-राम, राधे-श्याम करते कर रहे थे| तिसपर कमर से झुक चुकी दादी का रोज-रोज आने वाली संतान के बारे में कई प्रश्नों के साथ आँगन बुहारना दिनचर्या बन चुका था|
रम्या अपने कोख में पलती इस निशानी को गिराने का असफल प्रयत्न भी कर चुकी थी, और इस वजह से अब उसका आँगन की ड्योडी पार करना भी मना हो चुका था| अब रम्या थी और उसकी कोख में पलती यह निशानी, एक उम्मीद थी इस बस्ती की, कि शायद अब गाँव-मालिक के उनके प्रति बर्ताव में कोई फर्क आ जाए, उम्मीद ऐसी जैसी कि सूखे में पानी को तरसते किसान सूख चुके अम्बर में कहीं गलती से प्रकट होने वाले बादल के लिए रखता है| रम्या को भी उम्मीद थी, ऐसे लाल के प्रकट होने कि जो उसके मरुस्थल हो चुके जीवन में सावन कि एक बौछार ले आए, मुझे भी उम्मीद थी कि उसका सपना सच हो, वैसे सपने और वास्तविकता में अन्तर मुझे मालूम है मगर यहाँ स्थिति उम्मीद कि एक डोर सी खींचती मालूम होती थी| चलिये देखते हैं कि दो महीने में क्या होता है, अभी तो मैं भी उस भीड़ में शामिल हूँ, जो यह सोचते हैं कि रम्या उम्मीद से है|
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लाजवाब लिखा है। दर्द और उम्मीद। कलंक और टीके की बीच के फासले को खत्म कर दिया। उम्दा मेरे दोस्त। दारू पीकर खूब सोचते हो, लेकिन ब्रेन हैमोरेज से बचना।
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