June 20, 2013

और फिर मौन संवाद

कुछ नहीं से कुछ सही, और फिर, कुछ ही क्यों सही? सब कुछ सही क्यों नहीं? 

कुछ नहीं से सब कुछ क्यों नहीं, तक का सफ़र बस कुछ ही पलों में तय हो जाता है! और सामने होती है एक अनंत यात्रा, क्या यह केवल मौन से कट जायेगी? तुम जानती हो, एक पुष्ट संवाद के लिए, एक आत्मीय संवाद का स्थापित होना जरुरी होता है, तर्क और दृष्टिकोण किसी भी संवाद को केवल मेरे या मुझ तक ही सीमित कर देते हैं... तुम्हारे साथ किसी भी संवाद का अंत यदि मौन में हो तो क्या उसे संवाद कहा जाए?

मैं आज भी उसी लम्हे में हूँ जहाँ हमने उस संवाद को छोड़ा था.... ख़ामोशी के साथ, इस धीर से मौन में खोज रहा हूँ, उस ध्वनि प्रारूप को, उस शब्द को जो इस मौन को, इस अनंत ख़ामोशी को चीर कर रख देगा, उस अनहद ध्वनि बिम्ब की प्रतीक्षा में... जो इस चिरकाल के मौन को पुनः: जिवंत करेगा, आत्मीय निवेदन है... कोई नयी धुन छेड़ दो अब... कुछ कहकर इस सुसुप्त हो चुकी यात्रा को पुनर्जागृत कर दो! 


चेतन से अवचेतन हो चुकी इस पथ हीन, कान्तिविहिन, यात्रा में एक यही सोच तो साथ है, कि कहीं तुम हो, प्राण हैं, अभी समय शेष है… तो फिर क्यों रितुम्भरा जल मग्न होकर भी प्यासी है, क्या है जो तृप्त नहीं है, क्या है जो रोकता है, किस आवेग से भयभीत हो… इस अनजाने डर से की कहीं कुछ और मंतव्य तो नहीं। क्या मेरे ह्रदय में किसी भी और मंतव्य के लिए जगह शेष है? बह चलो और पाओगी की अनजाना भय एक कल्पना अतिरेक से अधिक कुछ भी नहीं, इस अनन्त मौन को अनहद की गूंज से छिन्न-भिन्न कर दो। 

उस अवस्था में लौट आना जहाँ कुछ न होकर भी सब कुछ प्रारंभ होता है, जहाँ तृप्ति हर दिशा में समायोजित है, जहाँ केवल एक मत न होकर, एक दृष्टिकोण न होकर भी, सब कुछ एकरस हो, जहाँ संगीत हो और साथ ही अनहद मौन भी, कुछ न होकर भी कुछ हो, तुमको ह्रदय से आमंत्रित करता हूँ और फिर सर्वस्व होगा इस अनहद मौन संवाद मे… 

टी सी के