August 17, 2009

हरी-पत्ती, खूब छनेगी

बैठे बैठे ऐसे ही बोर हो रहे थे, और याद आई शुक्ला, मातादीन, मुरारी और राजपूत के साथ बितायी हुई वो हसीन शाम जिस दिन पहली दफा जाना की अंग्रेजी मजे के हिसाब से इसके आगे कुछ नही! अब देखिये, कोई सस्पेंस-थ्रिलर तो लिख नही रहे हैं की अंत तक इन्तजार कराएं और बताएं की बात हो रही है हरी पत्ती की, अब यह बोलियेगा की हरी पत्ती नही मालूम क्या चीज होती है? अरे वही जो पुश्तों-दर-पुश्तों से चली रही हमारी देहाती सभ्यता का एक बिलखता अध्याय मात्र बन के रह गई है और जिसको कुछ समय से फिल्मो में सिर्फ़ मजे और मस्ती का पर्याय बना के होली और ऐसे ही कुछ अन्यान्य मौकों पे अनिवार्य मान एक भड़कीले गाने के साथ परोस दिया जाता है| यहाँ बात चल रही है भांग की और माफ़ कीजियेगा, भंग नाम तो केवल फिल्मों ने प्रचलित कर डालाहै!

तो उस शाम, ऐसे ही हत्थे के पास बैठे गप्पबाजी के दौर चल रहे थे और विचार किया जा रहा था की आज कौन से ठेके से मंगवाई जाए, अपनी जिंदगी भी उन मच्छरों की जीवन कहानी बन चुकी थी जो किसी नाले या मोरी में पानी या सड़ते बदबूदार, चिकट भरे मैले के रुक जाने का इंतजार करते हैं एक नए जीवन-चक्र की पुनरावृत्ति के लिए, ठीक वैसे ही, जी हाँ शाम का इंतजार रहता था हमको, नई बोतल और किसी ठेके पे उस बोतल के क्रय-विक्रय को लेकर उत्पात करने का, अंत में जीत हमारी ही होती थी और सरकारी स्टाफ के नाम पे अक्सर बोतल का मूल्य भी नही चुकाना पड़ता था, इसलिए दिन भर के ठेठ-देहाती शाम गहराते अंग्रेजी नशे में चूर विलायती बाबू बन जाते थे| लेकिन उस शाम बात कुछ और ही थी, आज मुरारी मुआ, एक नई कहानी लेकर आया था, कहानी भी क्या, राजधानी क्षेत्र के नाम से प्रचलित एक गुमटी और उस गुमटी के पास ही थोड़ा सभ्य और संभ्रांत कहलाने वाले एक मोहल्ले की मशहूर भाभी और उनके सत्चरित्र की महिमा-पुराण के आख्यान की| तो आज मूड अंग्रेजीदां होने का नही था, बात बिल्कुल देशी थी और उसे पचाने के लिए हमारे अंग्रेजी में घुल चुके उदर को कुछ देशी टोटके की जरुरत थी, तो निर्णय लिया गया की आज भांग छानी जाए और लो भइया नाम सुनते ही हम तो अपनी खाट पे उलट चिपक गए मानो, चमगादड़ ने हमारी शक्ल में अवतार ले लिया हो, जुताई, पिसाई, और ठंडाई में पड़ने वाले माल-असबाब की जानकारी और उस पर यह तथ्य की आज स्टाफ नही चलेगा, कल्लू डॉट कॉम पे वैसे ही तेरह हज़ार का उधार और उस पर कभी-कभी मजाकिया लहजे में बनने वाला हमारा बद से बदतर मजाक, कल्लू की दूकान की ओर हमारे कदम नही बढने दे रहा था, या यूँ कहें की गलती से ताउजी के सामने पड़ते ही छुटने वाली हरारत हमे अपनी खाट से चिपकाए हुए थी| तय हुआ की आज राजपूत ताऊ को बातों में उल्झायेंगे ओर शुक्ला भांग का साथ देकर उसे ठंडाई में परिवर्तित करने वाली सामग्री आने वाले समय पे पैसे चुका देने के नाम पर कल्लु की दूकान से लेकर आयेंगे, भइया अब इन दिनों में वही तो है अन्नदाता! कलयुग में शास्वत काल से चले रहेअन्नदाता अब किराने की दुकानों में विराजमान हो चुके हैं ओर उनकी जगह मन्दिर में बैठे देव-गण भी नही ले सकते!

तो भाई, योजना को मूर्त रूप देने के लिए राजपूत ओर शुक्ला कल्लू डॉट कॉम के ओर अग्रसर हो चुके थे ओर हम और मुरारी हमारी मशहूर भाभी की चिरोरी कर उनसे पिसनहारा लेने चल पड़े, इसी बहाने कुछ देर उनके सानिध्य में भी बिताने को मिल जाते ओर महिमा-पुराण में हमारा नाम भी स्वर्णाक्षरों में अंकित हो जाता, एक तीर से दो निशाने बनाने की कला तो हमारे देश में अजर-अमर है ही! भाभी को देख प्रणाम कर एक फिक् हसी हस हम घुस गए उनके घर ओर पिसनहारा का इन्तजाम करने की जुगत में लग गए, अब इतना तो प्रचलित है हमारे बारे में की जिस काम को करने चले हैं, वो काम करवाके ही सांझ ढले घर घुसे हैं| तो लो भइया हम पिसनहारा लिए धमके अपनी चौखट पे ओर अपने एल.ची को हुक्म दे डाले की सामग्री आते ही पिसनहारे की आवाज़ से पुरा मोहल्ला गुंजायमान कर दे ओर पिसती सामग्री की खुशबू से सराबोर कर दे घर-भर को, इसका भी कारण था, यह खुशबू माहौल को भंग्मय करने के लिए एक तरीका मात्र थी, असली वजह तो थी पड़ोस के लोगों को बताने की शाम ढलते ही विलायती-बाबु में परिवर्तित हो जाने वाले हम लोग आज भी देसी सभ्यता नही भूले हैं!

सौंफ, इलायची, काली-मिर्च, बादाम, काजू, पिश्ता ओर पाँच सेर दूध का इन्तजाम हो चुका था, अब इन्तेजार था तो केवल हरी पत्ती का, और लो वो भी गई, बरसात में कुकुरमुत्तों की भाँती ही उग आने वाली यह घास क्या-क्या काम सकती है, केवल चंद लोग ही जानते हैं! कार्यक्रम बनी योजना के अनुसार ही शुरू हुआ और आधे घंटे की मेहनत के पश्चात् हमारी भांग और सभ्य समाज में ठंडाई नाम से प्रचलित यह देसी टोटका हमारे उदर को शांत और मन को रंगीनियत से सराबोर करने को हमारे सामने विराजमान हो चुका था| बस अब देर थी तो कल्लू के आने की और लो वो भी पहुँचा, और शुरू हुए दौर छोटे-छोटे कुल्ह्ड्डों के रूप में, भाई इन्तजाम पुरा देसी था!

अडाही घंटे की जी-तोड़ मेहनत और पुरी भांग अन्दर गटक चुकने के पश्चात् इस देसी टोटके का असर और उस असर से मदहोश हो चुके हम लोग क्या कर रहे थे, एक किंवदंती बन चुका है! लोक-कहानी बन चुकी उस शाम को आज भी याद करते हैं हम लोग, और क्यूँ करें, शाम ही ऐसी थी और आज राजधानी क्षेत्र फ़िर पुकार रहा है, सभी यार दोस्तों को एक साथ इकठ्ठा होने को, हाल ही में पड़ी बरसाती बौछारों के बाद फ़िर निकल आए उन हरे पत्तों की सुगंध इस पुकार को और भी मादक और मोहक बनाए दे रही है!

फ़िर गूंजेगा नारा, बोल बम, छानो भांग, मिट जाएँ गम! मुरारी की बात आज भी उदर के भीतर ही है, और चिरौरी करने लगी है बाहर आने को, कल्लू का उधार कुछ सोलह या सत्रह हज़ार के करीब होगा, ठीक-ठीक याद नही, वो याद करता है, याद आती है तो बस उस शाम की और मुरारी की जो ऐसे ही एक रोज छानी हुई भांग को हलक में समाये हुए ही दुनिया से चल बसा! किसी से तिकड़म हो गई थी और अगले ने भक्क से छुरी भौंक दी आंतों में और मिनटों में ही हमारा मुरारी, मुरली वाले में लीन हो गया, उदर की बातों को आंतों के रास्ते बाहर निकलता पहली बार देखा था, शुक्ला बहुत दिनों तक उसे याद करके खोया-खोया रहता था, लेकिन फ़िर आने वाली बरसात जिंदगीमें चाहे-अनचाहे नए कुकुरमुत्तों की सौगात ले ही आती है! राजधानी क्षेत्र के वीर मुरारी तुम्हारे साथ छानी भांग आखिरी नहीं होगी, यह वादा किया था हम लोगों ने, और फ़िर बैठेंगे और इस बार तुम्हारा कुल्ह्द्द जमीन पे दे मारेंगे ताकि कभी कभी वो फ़िर हरी पत्ती का रूप ले सके और फ़िर किसी शाम को उतना ही हसीन बना सके जितनी की वो शाम थी! किसी कलबिया ने भी खूब कहा है!


की गई शाम तेरी याद आई मेरी चौखट पर,
की फ़िर सौंधी कोई खुशबू आई मेरी चौखट पर,
फ़िर चले यार दोस्त अपने अड्डों की ओर,
यह बरसात फ़िर लायी हरी पत्ती मेरी चौखट पर!


3 comments:

  1. भांग पीते सूरमा करते आंखें लाल, पड़े रहे चौपाल पर खझ मारेगा काल।
    भांग चटपटी, भाड़ में जाए लखपति।

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  2. झाम मचा दी....वाह बढ़िया लिखा तारा बाबू....ऐसी उम्मीद हमें आप से न थी....कि आप इतना बढ़िया लिख सकेंगे...लाजवाब देसी टोटके की तरह

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