August 24, 2009

ना कहते ही नहीं बनता!!!

आज एक नया अनुभव हुआ, भइया की हम 'हाँ' कह ही नहीं पाते, और हमसे 'ना' कहते ही नहीं बनता! आज सड़क किनारे अपनी खाट तोड़ते हुए यह अनुभव हुआ और ऐसा होना लाजिमी, कुछ यूँ हुआ, कि न हम 'हाँ' कह सके और न ही 'ना'....

तो हुआ कुछ यूँ कि, हम गुमटी पे अपनी चैतन्य मुद्रा में यानी की, झपकी लगाते हुए कुछ सोच रहे थे और मुआ शुक्ला आ टपका कहीं से, मानो आसमान में विचरते पक्षी-गण निशाना साध कर ही त्याज्य-योग्य पदार्थों की बारिश कर रहे हों! और लो शुक्ला बोले की गुरु आज तो सुबह-सुबह ही हलक की ऐसी-तैसी हो चुकी है, और अब इसको तर करने की जुगत लगाओ, सीधे शब्दों में कहा जाए तो, दारु की पिनक लग चुकी थी| और पिनक वो भी शुक्ला को, इतनी सुबह... अभी तो ठेके खुलने में भी आधा घंटा शेष था! न तो 'हाँ' कहते बन रहा था और न ही 'ना' कहते!

अभी चंद घड़ी ही गुजरने पायी थी कि देखा तो मातादीन, राजपूत को गलबहियां डाले इधर ही आ रहे थे| लगता है, आज चांडाल चौकडी ( मुरारी के गुजरने के पश्चात् हमारे लिए प्रयोग होने वाला विशेषण, उसके रहते हमको पांडवों के नाम से जाना जाता था) सुबह ही जमने वाली थी और राजधानी क्षेत्र से गुजरने वाले तमाम लोग, हमारे चरित्र-प्रमाण पत्र जो कि इस मोहल्ले में बहुचर्चित था, पे अपनी-अपनी गवाही को और पुख्ता करने वाले थे!

विशेष सूत्रों के हवाले हमारे हाथ, सबकी प्रेयसी यानी कि मदिरा अपने अंग्रेजी अवतार में प्यालों में समायी प्रस्तुत हो चुकी थी और हम उसको होंठों से लगा अमर करने के उपक्रमों में लग चुके थे| कल्लू भी बीच-बीच में अपनी उपस्थिति, चखने कि थाली पे दर्ज करा जाता था! और हम अपनी चिरंजीवी तटस्थता के साथ न 'हाँ' कह सके और न ही 'ना'.....

अब सोचिये जरा यह भी कोई बात हुई, कि सुबह-सुबह यार-दोस्त आ धमके और हम, कच्ची-पक्की, देसी-विदेशी ले बैठे और कर लिया सत-सत राम-राम, नेपथ्य से आवाज आती है, राम-राम है जी! मनोहर है, जो अपनी गुमटी पे आनेवाले नए लोगों कि फेहरिस्त में हाल-फिलहाल ही शामिल हुआ है! और आते ही बोले कि, गुरु-दो हजार रुपयों कि सख्त जरुरत है, फिर वही हुआ, 'हाँ' कह सके और ही 'ना'..... और शुक्ला ने आव देखा न ताव और टपा-टप गिन दिए दो हजार... अभी पिछली बार के दो सौ रुपये तो आए नहीं, दो हजार किस रास्ते आयेंगे... रास्ता खोदना पड़ेगा और फिर वही मोहल्ले वाले कहेंगे कि इस चंडाल चौकडी का काम फिर शुरू हो गया, इस तरह अपने रुपये-पैसों को वापिस लेने कि प्रक्रिया को लोग-बाग़ झगडे और दंगे का नाम दे देते हैं, और हम भी अपनी आदतानुसार न उसको 'हाँ' के रूप में और न ही 'ना' के रूप में स्वीकार कर पाते हैं!

कुल मिला के बुजुर्ग जनता हमें बिगडेल या छुट्टे सांडों के विशेषणों से अलंकृत करती है, मोहल्ले कि भाभियाँ हमारे अन्दर के झूझते नौजवान को देख इठलाती हैं, छोटे बच्चे हमें आदर्श मानते हैं, और कोमलांगी नव्योवनाएं हमारे अन्दर आशिक खोजती फिरती हैं और हम वही, कभी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक बात के पक्ष म नहीं हो पाते..... बस इतना जानते हैं!

तू जो कहेगा वही होगा, या रब...
चाह है कि मिटती नहीं हासिलों से
मिला देना मिटटी में मुझे किसी रोज...
हमारी क्या हस्ती, कि हम ना नहीं कह पाते!

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