August 26, 2009

कंजरी की प्यास

इंसानों को अलग-अलग देखना ग़लत बात है, लेकिन कई दफे ऐसा करना पड़ता है! कल शाम को ही एक अलग अनुभव हुआ, मैं और मेरी दुपहिया (रामप्यारी) दोनों मस्त चाल चल रही हवा का आनंद उठाते हुए 'चिल्ला' गाँव से सटी हुई बाईपास सड़क की सांस्थिति पे ऊंट-सवारी का अनुभव ले रहे थे, ना चाहते हुए भी! सड़क सीधी होते हुए भी बलखाती लग रही थी, और एक कर्णभेदी आवाज़ ने कानों को ऐसा भेदा मानो अर्जुन ने आँखें मीचे ही मछली की आँख भेद दी हो|

कर्कश मगर आम बोलचाल की भाषा में सुरीली कही जा सकने वाली, यह शब्द-वाणी एक ही सुर और लय-मुक्त तान में कुछ यूँ पुकारती सी जान पड़ी,

घड़ी दो घड़ी को सही, तेरी तड़प जलाती है|
तेरे जुल्फों से बहती हवा, मेरी प्यास बुझाती है||

इन अल्फाजों ने बताया की आजकल फिल्मी-मुखड़ों में ही नही सड़क पे बैठी कोई कंजरी भी, प्यास बुझाने में पानी की उपयोगिता पर केवल सवाल ही नहीं उठाती, वरन उसकी उपयोगिता को सिरे से ही नकार देती है! काश की यह सच होता और आने वाले पचास वर्षों में पेय-जल की समस्या का रूमानी ही सही मगर कोई हल तो निकल आता| हम तो प्यास का एक ही मतलब समझते हैं और वो है गला तर करने से, भले पानी से या फ़िर दारु से! लेकिन कंजरी के शब्दों ने प्यास को एक नया ही रुख दे दिया है, और फ़िर क्या था! हम भी वहीँ आसन जमा बैठ गए, और एक साठ का नोट कंजरी को थमा शाम ढले लग आई प्यास भुझाने की जुगत में पारंगत हो चुकी अपनी शैली को निपुणता से प्रयोग कर, अपनी और कंजरी की प्यास बुझाने में सफल होकर, अपने दस गुना आठ की कोठरी की ओर अग्रसर हुए!

लेकिन तृप्ति का जो अनुभव मुझे हुआ, वैसा शायद कंजरी को ना हुआ था, क्यूंकि मेरे उठते ही और मेरी रामप्यारी से भटर-भटर की कर्ण-प्यारी आवाज़ सुनते ही, उसने फ़िर वही राग छेड़ दिया और उसकी आवाज़ पहले की भाँती ही सड़क पर चलते हर प्यासे को अपनी ओर खींचने के क्रम में लग चुकी थी ओर फ़िर वही बोल, हवा में लहराने लगे थे!

घड़ी दो घड़ी को सही, तेरी तड़प जलाती है|
तेरे जुल्फों से बहती हवा, मेरी प्यास बुझाती है||


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